गिरती नैतिकता संवरे कब
ओ दिव्य अलौकिक मनुज समाज
सुनो अपनी अंर्तमन की आवाज।
घूम रहे कुटिल विचार के पंख जब
गिरती नैतिकता संवरे कब।।
ओ पाश्चात्य संस्कृति में झूल रहा
मनुज अपना आचरण भूल रहा।
खोले मूल नैतिक वस्त्र जब
गिरती नैतिकता संवरे कब ।।
हमने समझी जिंदगी चल रही
देखी स्वार्थ से दुनियां फल रही
हो गए एक दूजे के मेहमान जब
गिरती नैतिकता संवरे कब।।
हाय ,हेल्लो का अब जमाना
भृष्टाचारी से पैसा कमाना
अपनत्व का भाव नही जब
गिरती नैतिकता संवरे कब ।।
सोशल मीडिया पढ़ाता पाठ
स्टेटज दिखाता अपनी ठाठ।
न मिलते हम अपनों से जब
गिरती नैतिकता संवरे कब ।।
न यहाँ नारी को सम्मान मिला
न सीता जी को वरदान मिला
हैवानियत में द्रोपदी लुटी जब
गिरती नैतिकता संवरे कब।।
सिगरेट ,नशा पीते शान समझते
दिखावेपन में जान समझते
बुढापे में बालो की ढाई जब,
गिरती नैतिकता संवरे कब ।।
न पढ़ते लोग रामायण ,गीता
बनके रावण लुटती सीता।
नई सदी में आये संस्कार जब
गिरती नैतिकता संवरे तब।।
प्रवीण शर्मा ताल